अनंत बालूनाग देवता का मंदिर हिमाचल प्रदेश के बंजार तहसील के तांदी गाँव में स्थित है। इसका मूल स्थान बालो जंगल में है। मंदिर की बनावट बेहद खास है—यह लकड़ी और पत्थर के स्तंभों पर टिका डेढ़ मंजिला भवन है, जिसका आकार 8×27 फीट है। इसकी छत काष्ठ फलकों से बनी है, और अभिलेखों के अनुसार, इसका ऊपरी आवरण वि.सं. 52 में तैयार हुआ था।
कहते हैं कि मकड़ी द्वारा बनाए गए नक्शे के अनुसार Anant Balu Nag temple का निर्माण किया गया है। इसे बनाने में 2 वर्ष का समय लगा था। Balu Nag temple निर्माण के लिए शहतीरें नीचे से ऊपर लाई जाती थीं और एक दिन में शहतीरें जितनी ऊँचाई पर लाकर रखी जातीं, देवकृपा से वे रातों-रात उतनी ही और ऊपर पहुँच जाती थीं।
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Dev Shri Anant balu nag
शाखा मंदिर : गाँव गोहर, खूहण व खनेठी (ज़िला मंडी), तहसील बंजार की कोठी त्रिलोकपुर के गाँव बाहू तथा कोठी बुंगा के गाँव शौष में ।
अधिकार क्षेत्र : जिला कुल्लू के फतेहपुर, त्रिलोकपुर व शिकारी के अतिरिक्त जिला मण्डी के डाहर व नारायण गढ़ ।
प्रबंध : कारदार, मेहता, गूर, पुजारी, पालसरा, कठियाला, जेलता तथा धामी की समिति ।
न्याय प्रणाली : देवता का पानी पिलाकर, देवरथ, लाडू, पांसे द्वारा। जनश्रुति है कि एक बार मेहतों के साथ कराड़ों का चेथर क्षेत्र के साऊखोला गाँव के लऊं खेत की सीमा के लिए विवाद बढ़ा । इसके समाधान के लिए देवता अनंत बालूनाग का रथ बाजे-गाजे के साथ विवादवाले स्थान पर लाया गया। तब देवता ने छत्र से स्वयं सीमा खींच कर विवाद का हल किया।
पूजा : लोक रीति अनुसार गुग्गुल धूप, दीप, घंटी, शंख, चंवर आदि द्वारा प्रातः पूजा और सायं आरती होती है। रथ : शीश पर टोप के ऊपर छत्र से शोभित खड़ा रथ। इसे कुल्लू के राजा मानसिंह ने सर्वप्रथम 672 ई. में बनवाया था। तब इसमें अष्टधातु का एक और राजा द्वारा भेंट किए गए “री” नामक धातु के सात मोहरे लगते थे। मोहरे : कुल आठ। इनमें से सात स्वर्ण निर्मित और एक अष्टधातु का है।
पूजा और उत्सव हर दिन प्रातः पूजा और सायं आरती लोक रीति के अनुसार होती है, जिसमें गुग्गुल धूप, दीप, घंटी, शंख और चंवर का प्रयोग होता है। रथ की शोभा पर कुल्लू के राजा मानसिंह द्वारा 672 ई. में निर्मित रथ की खासियत है, जिसमें आठ मोहरे होते हैं – सात स्वर्ण और एक अष्टधातु का।
Fastival and Fairs of Anant Balu Nag
चैत्र मास की संक्रांति को देवता के बलराम अवतार की स्मृति में मंडी जिला के खनेठी गाँव में गोप मेला लगता है।
12 बैसाख तथा 12 आश्विन को बालो गाँव के प्रवेशद्वार शुरू बेताल स्थान में उत्सव मनाया जाता है। पूर्वकाल में यह 13 दिनों तक फिर 3 दिनों तक और वर्तमान में एक दिन ही आयोजित किया जाता है।
ज्येष्ठ मास में जी पकने पर कोठी शिकारी के गाँव चलाहण में सुन्दर मलंग नामक उत्सव मनाया जाता है।
श्रावण मास की शुक्ल चतुर्दशी को बालो और गोहर दोनों मंदिरों में बलदेव-जन्मोत्सव मनाया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा के दिन रथ को बाहर निकाल कर देव-कार्रवाई होती है। जन्मोत्सव के पाँचवें दिन लक्ष्मण रेखा यानी रेखा री जाच होती है। इसमें सीता हरण का दृश्य द्रष्टव्य होता है। इस मास को नागों के पूजन का समीचीन समय माना जाता है। अतः खाबल के बागे गाँव में शड़याव नाम का महत्त्वपूर्ण उत्सव मनाया जाता है। इसे जैठी पांजो के नाम से भी जाना जाता है। बाहू हूम में गाये जाने वाले देव गीत “मरह॒याकू’ को सर्वप्रथम शड़याच उत्सव में ही गाया जाता है।
हर तीसरे वर्ष श्रावण मास की संक्रांति से 3 श्रावण तक शिल्ह शण्याच में देव कार्रवाई सम्पन्न की जाती है। इसमें लोकनृत्य भी होता है।
भाद्रपद मास की संक्रांति को देव सभास्थल घाट में घाट जाच नामक उत्सव होता है। यह उत्सव देवता द्वारा क्रूर ठाकुरों के शासन से मुक्ति दिलाने की स्मृति में मनाया जाता है। भाद्रपद मास की शुक्ल तृतीया को बाहू हम होता है। इस दिन देवता के शाखा मंदिर बाहू में रात्रि जागरण होता है। वाद्य ध्वनि के साथ ऐतिहासिक गीत गाते हुए अनंत बालूनाग की गज बाहू मंदिर में लाई जाती है। चारों प्रहर मरह॒याकू नामक देवगीत गाया जाता है। इसमें देओ सराजी, वालूनाग, गढ़ शिकारी, बालो हूम, खावल के खमार, तांदी के मेहतों, पालसरा, ढाला आदि का विशेष उल्लेख किया जाता है। लोकश्रुति के अनुसार अनंत बालूनाग के रथ निर्माण से पूर्व बाहू हूम की परम्परा नहीं थी किन्तु जब कुल्लू नरेश मानसिंह ने रथ निर्माण किया तो अधिकार क्षेत्र की परिक्रमा को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ। रथ गाँव खाबल, चेथर, शिल्ह और शुरागी में गया तब गाँव बाहू वाले छीना-झपटी करके देवता की डाहुली (गज) उठाकर अपने गाँव में लाए। तब से आज तक इस उत्सव का आयोजन बाहू में होता है। बाहू हूम के अगले दिन यानी भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी को देवता की गज़ बाहू से मूल मंदिर बालो में लाई जाती है और पंचमी को बालो पांज़ो के नाम से नाग पंचमी मनाई जाती है। भाद्रपद मास में ही तांदी गाँव में तांदी जाच का आयोजन होता है। प्रथम वर्ष यह भाद्रपद शुक्ल षष्ठी को ब दूसरे वर्ष भाद्शुक्ल नवमी को मनाई जाती है।
हर तीसरे वर्ष भाद्रपद की शुक्ल षप्ठी तथा सप्तमी को बागी जाच नाम से मेला लगता है। इसमें पुजाली भगवती भी शामिल होती है।
कार्तिक मास की अमावस्या को मंडी जिला के शुरागी नामक स्थान में अनंत वालूनाग के लक्ष्मण अवतार की स्मृति में दीपमाला पारंपरिक ढंग से मनाई जाती है।
मार्गशीर्ष मास की प्रतिपदा को चेथर में दयाली पर्व मनाया जाता है। इस दिन लंका पर चढ़ाई से पूर्व राम-लक्ष्मण और वानरों द्वारा किए गए युद्ध अभ्यास की स्मृति में देव-दानव संग्राम का रोमांचकारी दृश्य प्रदर्शित किया जाता है। इसी रात्रि को कंस की मल्लशाला में बलराम और असुरों के मध्य हुए युद्ध की याद में बल-परीक्षण द्वारा मल्लयुद्ध का अभिनय किया जाता है जिसे मलहयाची कहते हैं | मंडी जिला की उपतहसील बाली चौकी के गाँव वरखोल में हर तीसरे वर्ष मार्गशीर्ष की अमावस्या को हूम होता है। इस अवसर पर रात को पूरे बरखोल क्षेत्र की परिक्रमा की जाती है।
पौष व माघ मास में “नरोल’” में रहने के बाद जब फाल्गुन संक्रांति को देवता बाहर निकलता है तो गूर द्वारा वर्षफल सुनाया जाता है।
हर तीसरे वर्ष पुजाली से कोकी तक फारिआउत (फेरा) होता है। इसमें देवकार्रवाई के साथ-साथ लोकनृत्य भी होता है। इसी प्रकार प्रत्येक तीसरे वर्ष देवता को गोहर मंदिर में ले जाते हैं। वहाँ देव कार्यवाही होती है।
कुल्लू के राजा जगत सिंह के काल से प्रत्येक तीसरे वर्ष शिकारी गढ़ में गढ़ के दमन की रस्म अदा की जाती है। पहले इसमें कुल्लू के राजा की उपस्थिति अनिवार्य होती थी लेकिन अब राजा के प्रतिनिधि के रूप में कोठी शिकारी का लंबरदार इसमें भाग लेता है। यह अपने साथ सराजी देव बालो का एक निशान सेर साथ लाता है।
Shivratri Fair
देवता का अधिकार क्षेत्र जिला कुल्लू के साथ-साथ जिला मंडी के सराज क्षेत्र में भी होने के कारण अनंत बालूनाग मंडी नरेश विजय सेन के काल सन् 1880 तक मंडी शिवरात्रि में शामिल होकर माधोराय से मिलन करते रहे हैं और आज भी मंडी जिला क॑ शुरागी गाँव में देवता का दीपमाला नामक पर्व मनाया जाता है।
22-23 वर्ष के पश्चात् देवता जिला मंडी के बड़े देओ माने जाने वाले कमरूनाग की झील व मंदिर में जाकर देव कार्यवाही सम्पन्न करता है।
नई फसल के आने पर झुंगड़ नामक स्थान में बाजे-गाजे के साथ देवता को प्रथम भोग चढ़ाया जाता है। इसी प्रकार 2 टोल (परिवार) खाबली व तांदी क॑ महते अपने-अपने क्षेत्र में सातृ उत्सव का आयोजन करते हैं। पुष्पमालाओं से सज्जित देव रथ को वाद्य धुन के साथ जौ के सत्तू का आहार भेंट करते हैं। देवता इसे स्वीकार करके अपने भक्तों को आशीर्वाद देता है।
किसी समय अनावृष्टि जनित दुर्भिक्ष से त्राण पाने के लिए कुल्लू के राजा मान सिंह ने अनंत बालूनाग की शरण ग्रहण की थी। जब देवता ने अनावृष्टि के संकट को दूर किया तो राजा ने देवरथ का निर्माण कर इसे ‘री’ धातु के सात मोहरे भेंट किए | 672 ई. में बाहू में करूआ नामक महायज्ञ का आयोजन किया। इसके पश्चात् सन् 942 में अनंत बालूनाग के सम्मान में पुनः बाहू में महायज्ञ सम्पन्न हुआ | बाहू की भाँति बला नामक शक्तिपीठ में भी देवता के सम्मान में इस उत्सव का आयोजन दीर्घ समय के पश्चात् किया जाता है।
पूर्व में प्रतिवर्ष निआह घरट के पास मंगलौरी मार्कण्डेय के साथ तथा टिप्परा में बुंगड़ तथा मार्कण्डेय के साथ मेले होते थे। आज ये लुप्तप्राय हैं।
History of Dev Anant Balu nag in Hindi
देव-भारथा के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में सती के देश (हिमालय पर्वत) में पौणी दौइंत रहता था। वह देवी-देवताओं को अनेक यातनाएँ देकर पीड़ित करता था। देवताओं का करुण क्रंदन सुनकर अनंत बालू नाग का सात पाताल में स्थित आसन हिला। तब वह गहरे सागर के भीतर बालू के विशाल टापू से सती के देश में पहुँचा ओर ढाई पल में ही देत्य का संहार किया। उसके बाद उसने कांढे (पर्वत) पर अपना निवास बनाया और वहाँ जल सरोवर की उत्पत्ति की सती र देशे पोणी दौइंत थी गारहु नाई थी, हारहु नाईं थी, मारहु नाईं थी देवते रौंदे कलांदे लागे, पताले मेरो आसन जाम्हु पाथरा साईं दिल थी मेरा चोपड़ा साई खुल॒दा लागा हाअं साते पताला का निखतो सती रे देशे पूजो ढाई पला मंजे पौणी दौइंता गाली ढाली बेठो कांढे न्यास देई करी बेठो, पाणी रो डिभरू र॒झाई करी बेठो
देवता की कांढे से आगे बढ़ने की इच्छा हुई। तब वह हिमसु, मानसरोवर, भरमौर, पिंगलासर, विंगलासर, शेषधारा आदि अनेक स्थानों से होते हुए कमरूआह, शिकारी, जोगीपाथर, देओ कांढा, वलखोल खूहण, खनेठी से आगे बढ़ते हुए पावन व दिव्य स्थल बालो में पहुँचा । कहते हैं कि इस क्षेत्र में देवता सर्वप्रथम कांढी और अंत में तांदी स्थान पर पहुँचा | तांदी में मेहते का एक परिवार रहता था। मेहता ने सनुला से अपने घर के लिए लकड़ियाँ लानी थी। अतः वह गाँव में जुआरे (बेगार करने वाले) बुलाने गया था। तभी उसके आँगन में साधु के भेस में देवता आया और उसने भोजन की इच्छा व्यक्त की। मेहते की पत्नी ने संदेश भेज कर अपने पति को घर वापिस बुलाया।
मेहता ने लकड़ी लाने के कार्यक्रम को स्थगित कर के घर पहुँचकर साधु की खूब सेवा शुश्रूषा की। साधु ने रात को वहीं विश्राम किया। प्रातः उठकर मेहता ने देखा कि उसके आँगन में लकड़ी के ढेर लगे थे और साधु गायब हो चुका था। मेहता दम्पती विस्मित था। उसी समय आकाशवाणी हुई हे मानव मैं आपके आतिथ्य से अति प्रसन्न हूँ और यहीं रहना चाहता हूँ। मुझे अपना वचन दो। मेहता ने पूछा तुम कौन हो। “मैं अनंत नाग हूँ’ देवता ने उत्तर दिया। मेहता ने पूछा तुम्हारा घर कहाँ है। देवता ने कहा
खार समुद्र बालू जंद्र, पाणी रो डौल मेरो घौर
अर्थात् मेरा घर अगाध समुद्र के मध्य बालू के विशाल टापू के ऊपर है। मेहता ने पुनः पूछा आपका क्या स्वरूप है। देवता ने उत्तर दिया
मेरो घर गाड़ा पार गाड़ा उआर, भोसले विष्णु सिरे संसार
अर्थात् मेरा कोई अंत नहीं है फिर भी मेरी गोद में विष्णु और सिर के ऊपर पृथ्वी मंडल है। तब मेहता ने कहा तुम तो बालूनाग हो, चूँकि तुम्हारा समुद्र में बालू के बीच में निवास है और सिर पर पृथ्वी को धारण करने के कारण तुम शेषनाग हो। कहो, मैं आप की क्या सेवा करूँ? देवता ने कहा अनंत काल तक तुम्हें मेरी चाकरी करनी होगी। मैं तुम्हारे सकल मनोरथ पूर्ण करूँगा। मेरे हार-द्वार (अधिकार क्षेत्र) की पूर्ण व्यवस्था करना तुम्हारा दायित्व होगा। अतः मैं अपनी व्यवस्था की हाक-थमाक (बागडोर) तुम्हें देकर जाता हूँ। तुम आँखें बंद कर के बैठो। मेहता ने वैसा ही किया। देवता सर्प से पिंडी रूप में अवतरित हुआ और मेहता को आदेश दिया कि वह उसे बालो में ले जाकर मंदिर का निर्माण करे। मेहता ने देवाज्ञानुसार बालो में उसकी स्थापना की।
यह जानकारी सही नहीं है
kripa karke sahi jankari hame de , hame ye jankari himanchal ke devi devta naam ki ek book ha usse mili, or hum es pe kaam kar rahe ha or jankari add karne ki to kripya aap hame sahi jankari dena ki kripa kare
Thik to ha history