जानिए देव धूम्बल नाग की कहानी

धूम्बल नाग का मंदिर हलाण, कोठी बड़ागढ़ में है। इसका गूर श्री कालिदास, कारदार श्री जीतराम, पुजारी श्री डोलेराम तथा भंडारी श्री कौलु है। देवता का फेटा रथ छत्रयुक्त शीर्ष वाला है, जिसके दोनों कोनों पर फुल्लियाँ शोभित हैं। इसे उठाने के लिए दो अर्गलाएँ प्रयुक्त होती हैं। रथ के अग्रभाग में रजतनिर्मित आठ मोहरे विराजित हैं।

गोशाल गाँव में किसी स्त्री के अठारह नाग पैदा हुए। उसने इन नागों को भांदल (मिट्टी का बना बड़ा घड़ा) में बंद कर दिया और प्रतिदिन इनकी पूजा धौड़छु (कलछीनुमा धूपपात्र) में धूप लेकर करती थी। एक दिन माता किसी कार्य से बाहर गई तो घर की दूसरी स्त्री ने इनकी पूजा करते हुए भांदल का ढक्कन हटाया और नागों को देखते ही वह डर गई और हड़बड़ाहट में धूपपात्र की आग नागों पर गिर गई। उससे नाग झुलसकर वहाँ से भागे। जिस नाग का रंग आग के धुएँ से धूम्र वर्ण का हो गया था, वह नाग बाद में धूम्बल नाग कहलाया। धूम्बल नाग गोशाल से भागकर दिल्ली पहुँचा। वहाँ से वापस आकर पाँगी पाडर से महाचीन तक गया। महाचीन में भी मन नहीं लगा तो वहाँ से अनेक स्थानों पर जाकर और उन स्थानों के अत्याचारी व्यक्तियों को समाप्त कर कालीहैण, छानघाट, छौन डेहरा आदि स्थानों पर अपने चमत्कार दिखाने के बाद वह हलाण में आया। इस स्थान को उपयुक्त समझकर नाग देवता ने यहीं अपना मुख्य स्थल स्थापित किया।

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